मेरा गाँव

मेरे इस ब्लॉग की सबसे बड़ी मुख्य बात मेरे लिए ये है कि header में जो फोटो है मेरे**( गाँव)** की है .... यहाँ होते हुए भी अपने घर को हर रोज देखता हूँ ..........

Tuesday 24 August 2010

उड़ जाऊँ मैं नील गगन में ....


मन करता है

मेरा अक्सर ...

उड़ जाऊँ मैं नील गगन में

अरमानो के पंख लगा ॥

छुप जाऊँ

चंदा में जा कर

तारों के संग खेलूं खेल ॥

कभी यहाँ

तो कभी वहां मैं

उड़ता फिरता जाऊँ मैं हरदम ,

ढूंड निकालूँ

उस दूर क्षितिज को

धरती अम्बर

का जहाँ होता मेल ॥

मन करता है

मेरा अक्सर ...

उड़ जाऊँ मैं नील गगन में

अरमानो के पंख लगा ॥

Tuesday 10 August 2010

वो तेरा मुसकराना, वो नजरें झुकाना ....

लो फिर याद आ गया
वो गुजरा जमाना
वो तेरा मुसकराना
वो नजरें झुकाना

दांतों तले
उँगलियों को दबाके
नजरें मिलाना कभी नजरें चुराना
यूँहीं दूर ही दूर से ....
हमें प्यार करना
लो फिर याद आ गया
वो गुजरा जमाना
वो तेरा .......

निगाहों -निगाहों में
वे शिकवे शिकायत
तेरा रूठना .....
मेरा तुझको मानना
लो फिर याद आ गया
वो गुजरा जमाना
वो तेरा ......

हर तरफ ढूड़ना
निगाहों का तुम्ही को
पा के तुम्हें
खुद ही को भूल जाना
डरना , झिझकना
किसी धीमी आहट पे
शरमा के आँचल से
चेहरा छुपाना
लो फिर याद आ गया
वो गुजरा जमाना
वो तेरा .....

Saturday 24 July 2010

श्यामे तन्हाई में .....


श्यामे तन्हाई में

लो फिर आज

उनकी याद आई है....

गुजरे

वक़्त की वो

हसीं तस्वीर उभर आई है...!!!

मंद जलते

चरागों की

मध्यम है रोशनी भी

अँधेरे घने है

ख़ामोशी सी छाई है

दूर ...

बिजलियाँ हैं,

टीम -तिमाते

तारों का घना बसेरा है

अपने

आसियाने में

तन्हाई ही तन्हाई है ....

श्यामे तन्हाई में

लो फिर आज

उनकी याद आई है........!!!

गुजारिश ....!

कितनी मुद्दत से
मिले है
न जाओ....तुम !
"खुसी से जी ले कुछ पल"
सजायेंगे
आशियाना अपनी
खुशियों का
हम तुम ,
बाँटेंगे सुख दुःख अपना
वरना दूर
घरोंदों मैं
सिसकती जिंदगी
को किसने
देखा है,
क्या पता ये वक़्त
आये ना आये फिर कभी ....

Wednesday 21 July 2010

शब्द किस तरह कविता बनते हैं .....

विचारों के इस
विचित्र प्रवाह में
शब्द किस तरह कविता बनते हैं
इन शब्द को देखो

जैसे माला में
पिरो के फूलों
को शब्दों को को
पिरो के पंक्तियों में
शब्दों के इस नयें अर्थ को .....
सब्द किस तरह कविता बनते हैं
इन सब्दों को देखो

मन की इस असीमित
उड़न में
शब्द किस तरह बनते और विखरते हैं....
इन शब्दों को .....
शब्द किस तरह कविता बनते हैं
इन शब्दों को देखो

सागर से मोती चुन
शब्दों के समंदर से शब्दों को
चुन के फिर इन शब्दों ........
शब्द किस तरह कविता बनते हैं
इन शब्दों को देखो ...
इन शब्दों को देखो ......
इन शब्दों को देखो ........!

Sunday 18 July 2010

अभिव्यक्ति: "नीम की डाली "कहानी

अभिव्यक्ति: "नीम की डाली "कहानी

मैं ना कहता था दीदी आप के हाथों में जादू है आप की कहानी पढ़ी मन गद-गद हो गया एक मा की निस्वार्थ ममता को आप ने कितन मार्मिक ढंग से चित्रित किया हैऔर साथ ही दो पीढ़ियों के विचारो के अंतर को भी... सही कहा आप ने आज की पीढ़ी रिश्तों को नफ्हा और नुक्सान के तराजू में ही तोलती रहती है भावनाएं ख़तम हो चुकी हें और सब ने प्रेक्टिकल सोचना सुरु कर दिया है सयुंक्त परिवारों का विखंडन इस संकीर्ण मानसिकता का ही परिणाम है

नन्हीं सी परी ...

छोटी सी नन्हीं सी प्यारी सी
एक मासूम सी परी हो तुम...............

सब की दुलारी ......
लाडली हो तुम
मुस्कराती रहो जीवन में तुम हरदम...
कभी न उदास हो तुम...
छोटी सी नन्हीं सी प्यारी सी
एक मासूम सी परी हो तुम......

खुशियों से भरा हो सदा दामन तुमारा
गमो से रहो सदा दूर तुम
जीवन की डगर में चलती चलो तुम
छोटी सी नन्हीं सी प्यारी सी
एक मासूम सी परी हो तुम...........

चूमे कदम हर मंजिल तुमारे......
अब क्या -क्या लिखूं
की क्या हो तुम
छोटी सी प्यारी सी नन्हीं सी
एक मासूम परी हो तुम ...............

मन की अभिलाषा....

धुंडने निकला हूँ अपने अक्स को...
दूर सपनो से कहीं आवाज की पहिचान को.....
मन समर्पित कर चूका हूँ
सेस यह जीवन समर्पित भी है अपना
पा के खुद को खोने को तैयार सब कुछ
धुंडने निकला हूँ अपने अक्स को....
दूर सपनो से कहीं आवाज की पहिचान को .......
तय किये है फासले मैंने कई
चल के अन गिनत राहों से.....
आके ठहरा हूँ यहाँ
धुंडने निकला हूँ अपने अक्स को ....
दूर सपनो से कहीं आवाज की पहिचान को ....
ध्रिड संकल्प हूँ एक दिन मिल्लूँगा उससे यहाँ
धुंडने निकला हूँ अपने अक्स को......
दूर सपनो से कहीं आवाज की पहिचान को ......
मंजिलें मुस्किल थी ....
ब्याकुल पाने को मन
रास्ते अन्जान नयें ....
आ मिले हो अब मुझे तुम साथ ले लो
हर कदम पर हर नया एक सक्स है
धुंडने निकला हूँ अपने अक्स को .....
दूर सपनो से कहीं आवाज की पहिचान को ........

तुम......तुम.......सिर्फ........तुम...

सूर्य की पहली किरण के साथ ही
तुम्हारे क़दमों के पद चिहन भी
ओंस की बूंदों की मानिंद पल भर में ही मिट गए .........
सब कुछ याद बन के रहा गया
चंद लम्हों पहले हम तुम थे .............
चाँदनी रात में रात्रि का तीसरा पहर ........
सूनसान पार्क के बीचों बीच
बहते झरने की कल्कलाहट .........
रात के सन्नाटे को
दफ्न करने की कोसिस में
हमारे बीच की खामोसी को तोड़ती हुई......
कदम से कदम मिला रही थी .......
अर्थ हीन सब्दों के बुलबुले
मन में कभी उठते कभी मिटतेन
न तुम्हारे ओंठ हिलते न आँखे जवाब दे रही थी..
अंतर्मन में एक ध्वंद सा चल रहा था
हम जानते थे हम कभी नहीं मिलेंगे ..........
वक़्त के हर एक लम्हे को समेट
एक दूजे को समर्पित करके...
भविष्य के अंधकार में विलीन होना था हमें
कुछ भी तो शेष नहीं रहा ..
सूर्य की पहली किरण के साथ ही
तुम्हारे क़दमों के पद चिहन
ओंस की बूंदों की मानिंद पल भर में ही मिट गए ......
सब कुछ याद बन के रहा गया ........

तुम मिले ....!!!

तुम मिले तो ये जाना .....
सारा जहाँ मिल गया ...........
ना सोचूं कुछ .......
पर ये मानु .....
की तुम मिले... सारा जहाँ मिल गया...............
इस बीरान जिंदगी में .......................
एक हंसी मिल गया ...........
धुन्ड़ता हूँ मैं .............
पूछता हूँ मैं............
हर किसी से .............
तेरा निसान ...............
जो मिल गया.....तू ना समझे ...........
ये मेरी बातें .........
पर कुछ यहाँ मिल गया.............
हें खामोश क्यों.......
ये लब्ज तेरे सुन दास्ताँ इस हाले दिल की ................
तेरा निशां मिल गया........
अब तू कहे ..........तू सोचता है.......
पर मैं कहूं सब कुछ यहाँ ....................
छोड़ो भी अब ............हो गया........जो हुआ ..............
तू मिल गया..........
तेरा निशां मिल गया....................

Thursday 24 June 2010

मुझे आज भी याद है..........

वो उनके आने की आहट ने मुझे चोंका दिया
मुझे आज भी याद है..........................

उस लम्हे को अरसा गुजर गया
अर्थ हीन सब्दों को
पंक्तियों में पिरो कर
फिर बिखेरते .........
फिर पिरोते नए अर्थ की तलाश में
मुझे आज भी याद है ......................

फिर उनसे मुलाकात की चाह ने
मेरे सब्दों को नयी दिसा दी
मुझे आज भी याद है .....................

अब हर रोज
कुछ नया लिखने की कोशिस
अन गिनत सब्दों से भरे मन से
सब्दों को नया अर्थ दे कर
उन्हें पंक्तियों में पिरो कर उन्हें देना
मुझे आज भी याद है....................

वो उनके आने की आहात ने मुझे चोंका दिया
मुझे आज भी याद है.......................

नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों.........

गोंला गुठियारों मा व दोड़ा भागी
सागवाड़ों न व काकडी मुंगरी माल्टा की चोरी
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ................

छाजा डेनडाला मा उ लुका छुप्पी
माँ की खुगली माँ उ बेसुध से जाणू
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ................

फूलु का मैना मा
सारी-सारियों मा फूलेरू की टोली
वो हल्ला वो हुड़दंग उ खेलाणु-खिलानु
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ................

थोल आंदा त व मोंज व मस्ती
जेठ का मैना माँ काफुलू का पिछाड़ी
कई माँ सुणों व भामोरों की सैदा
भट्गाणु वों डंडों -डंडों
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ................

कभी काळी त कभी लाल हिसर
उ घिंगारू , किन्गोद
सारी सारयों वो पोथालों का घ्वाल
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ................

बस्गाल आंदा ही रोप्निओं की मार
वा सेरों की धान
फलेंडा की बार उ तिमलों कु स्वाद
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों .........

कैमा मांगों उ बचपन का दिन
बाबा की वा प्यारी फटकार
माँ कु लाड़........
नि भुल्यों मैं कुछ नि भुल्यों ...............